Tuesday, 24 January 2012

सदी का इतिहास लिखते जूते- -राजेश चन्द्र


सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में समाजवादी व्यवस्था का अंत होने के बाद साम्राज्यवादियों के साथ उदारचेता जनतंत्रवादियों के एक हिस्से ने भी यही सोचा था कि शीतयुद्ध की समाप्ति दुनिया में मानव-विकास के एक नए चरण का सूत्रपात करेगी। संयुक्त राष्ट्र की कुछ संस्थाओं ने मानव-विकास के नए मानदंडों के निर्माण और एक नई कार्ययोजना के ताबड़तोड़ नुस्खे तैयार करने शुरू कर दिए थे और ऐसा प्रतीत होने लगा था कि अब दुनिया में मानव-हितों के अतिरिक्त और किन्हीं स्वार्थों के लिए कोई जगह नहीं बची है। पर यह खामखयाली ज्यादा देर तक टिकने वाली नहीं थी और जल्दी ही फिर से यह साबित हो गया कि दुनिया में यदि कुछ नहीं है तो वह है मानव-हित। पूंजी और मुनाफे के विस्तार का वही जघन्य इतिहास अपने और भी कुत्सित रूप में हमारा आज का वर्तमान है जिसके तहत पनप रही ‘सभ्यताओं‘ के लिए मानव-संहार से बड़ा कोई धर्म नहीं। अमेरिका, जो इन ‘सभ्यताओं‘ का सिरमौर है, उसे यह दैविक आदेश मिला हुआ है कि वह दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाए। इस कार्यभार को पूरा करने के लिए ही वह हर क्षण दुनिया के राष्ट्र राज्यों को कुचल देने के लिए उतावला रहता है। वह सामरिक और आर्थिक रूप से कमजोर देशों की संप्रभुता को नहीं मानता, चाहे वह वियतनाम हो, इराक, अफगानिस्तान, लीबिया या फिर पाकिस्तान।
समूची दुनिया में हिंसा, विनाश और निर्दयता की एक पूरी संस्कृति को जन्म देने वाला अमेरिका अपने दैत्याकार जंगी बेड़ों को कहीं भी भेज सकता है। वह तेल और बिजली के संयंत्रों, जलापूर्ति संस्थानों, दूरसंचार उपक्रमों, अनाज के भंडारों, दूध और दवा के कारखानों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों, पूजाघरों और पुरातात्विक स्थलों के ध्वंस पर या कि बच्चों, औरतों और वृद्ध असहाय लोगों की लाखों क्षत-विक्षत लाशों पर अपने रेडियोधर्मी क्लस्टर बमों की संहारक शक्ति का उन्मत्त विज्ञापन कर सकता है। इराक और बोस्निया इसके ताजा उदाहरण हैं। युद्ध अमेरिका के लिए एक व्यवसाय है, विध्वंस से लेकर पुनर्निर्माण तक मात्र एक लाभकारी परियोजना, फिर चाहे इसके लिए उसे पांच लाख मासूम इराकी बच्चों की हत्या ही क्यों न करनी पड़े।
इराक और सद्दाम हुसैन की तबाही के बाद बुश और ब्लेयर ने सोचा था कि इराकी जनता उनका स्वागत ऐसे मुक्तिदाताओं के रूप में करेगी जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से उन्हें सद्दाम के तानाशाही शिकंजे से मुक्ति दिलाई और लोकतंत्र की स्थापना की। उनके लेखे यह दुर्भाग्य ही है कि इराकी जनता इस कृत्य को बर्बर आक्रमण और सामूहिक नरसंहार के तौर पर देखती है और उसने आज तक अपना बहादुराना प्रतिरोध संघर्ष जारी रखा है। 14 दिसंबर 2008 को अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅर्ज बुश को अपने जूते का निशाना बना कर इराकी नौजवान मुंतजर अल जैदी ने पूरी दुनिया को यह दिखा दिया कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों की आड़ में जो कुछ अमेरिका और उसके पिट्ठू देश कर रहे हैं वह केवल शर्मनाक, घृणित और अमानवीय है और इराकी जनता उनकी असली शक्लें पहचानती हैं। बुश पर फेंका गया वह जूता दुनिया भर के अमनपसंद लोगों की अमेरिका के प्रति घृणा का प्रतीक बन गया और मुंतजर अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्षरत लोगों का एक आदर्श नायक। इराकी जनता के सामूहिक विनाश का आंखों देखा हाल मुंतजर ने अपनी किताब ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसिडेंट बुश‘ में दर्ज किया है। इसी किताब पर आधारित और राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक ‘द लास्ट सैल्यूट‘ का मंचन विगत 14 एवं 15 मई को श्रीराम कला केन्द्र में प्रख्यात निर्देशक अरविन्द गौड़ के निर्देशन में किया गया। जाने-माने फिल्मकार महेश भट्ट के प्रोमोडोम फिल्म्स और अस्मिता की यह संयुक्त प्रस्तुति न केवल एक निहत्थे और जर्जर देश की जनता पर ढाए गए अमेरिकी कहर के आंखें खोल देने वाले ब्योरे उपलब्ध कराती है बल्कि साम्राज्यवादी आधिपत्य के खिलाफ वहां जारी जन प्रतिरोध की जीत में भी भरोसा पैदा करती है।
यह नाटक अमेरिका की इस धारणा पर सटीक और मारक प्रहार करता है कि वह शुभ शक्तियों का प्रतीक है, महान सैन्य शक्ति है, उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सैन्यशक्ति के इस्तेमाल का अधिकार है और कोई उसे चुनौती नहीं दे सकता। नाटक में मुंतजर की भूमिका कर रहे इमरान जाहिद जब बुश पर जूता फेंकते हुए उसे ललकारते हैं कि ‘यह इराकी जनता का तेरे लिए जवाब है कुत्ते‘, तो प्रेक्षागृह में उपस्थित दर्शकों की रीढ़ तन जाती है और उनके चेहरों पर संतोष की एक चमक उभर आती है। पूरी प्रस्तुति के दौरान पीछे का पर्दा रोशन रहता है जिस पर बमों, मिसाइलों एवं राॅकेट लांचरों के हमले से क्ष-विक्षत मानव-शरीरों, जलते घरों, मारे गए बच्चों, औरतों और बिलखते-हाहाकार करते इराकी नागरिकों के वास्तविक छविचित्र प्रदर्शित होते रहते हैं और इस पृष्ठभूमि को झुठलाने की कोशिश में मंच पर बुश और उसका अमेरिका तार-तार होता रहता है।
निर्देशक ने अबू गरेब जेल में अमानवीय यातना के शिकार इराकी नागरिकों की उपलब्ध विडियो रिकाॅर्डिंग्स का इतनी खूबसूरती के साथ उपयोग किया है कि वे प्रस्तुति का अभिन्न अंग बन गई हैं। इमरान जाहिद (मुंतजर), इश्वाक सिंह (बुश), वीरेन बसोया (सूत्रधार) और शिल्पी मारवाह (प्रेमिका) के साथ-साथ लगभग तीन दर्जन अभिनेता-अभिनेत्रियों की मंडली मंच को हर क्षण गतिशील बनाए रखती है। फैज, साहिर और हबीब जालिब जैसे महान कवियों की रचनाओं का संगीता गौड़ के संगीत निर्देशन में प्रस्तुति में जैसा उपयोग किया गया है वह कविता और नाटक के एक नए ढंग की और सार्थक समावेश की संभावनाएं उजागर करता है। सामरिक और आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के जनगण की तबाही रचनेवालों के खिलाफ आज जिस प्रकार अमेरिका, यूरोप और मध्यपूर्वी देशों में लेखक, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी आवाज उठा रहे हैं, ‘द लास्ट सैल्यूट‘ नाटक भी अपने कलात्मक स्वरूप में उसी प्रतिरोध के साथ खड़ा दिखाई देता है।