Asmita Theatre founded in 1993 by Theatre Veteran Sir Arvind Gaur focusses on social political issues like Corruption,female foeticide,eve teasing,water sanitation,garbage,Pustakalya ya Madiralya,Roadrage among many others. Asmita Theatre Group focus on the problems that are currently prevalent in the society. Asmita Theatre believes in "Theatre for change,Theatre for society". Please find the amazing article on our journey : http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012–06–18/delhi/32298078_1_arvind–gaur–slum–dwellers–job–hunt
Asmita Theatre Review
Saturday, 15 December 2012
Sunday, 9 September 2012
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध- समर शेष है - रामधारी सिंह "दिनकर
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
"DASTAK"- A Voice against atrocities on women
Must watch video - "DASTAK"-A Voice against atrocities on women.Performed by Asmita Theatre Group directed by Arvind Gaur.'DASTAK'- A street play that attempts to create awareness on increasing incidences of atrocities against women in our country.
The play highlights the heinous violence and harassment against women at working and public places. Why women in the national capital of India, New Delhi- a metro city, feel unsafe at public paces at all times of the day and night? Cutting across class, profession, they face continuous and different forms of sexual harassment in crowded as well as secluded places. Be it public transport, cars, markets, roads, public toilets, parks or any other place women always have to be on their guards. School and college students are most vulnerable to harassment and illicit behaviour, particularly rampant in public transport, like buses. The play is an attempt to raise awareness and sensitize people on atrocities
The play highlights the heinous violence and harassment against women at working and public places. Why women in the national capital of India, New Delhi- a metro city, feel unsafe at public paces at all times of the day and night? Cutting across class, profession, they face continuous and different forms of sexual harassment in crowded as well as secluded places. Be it public transport, cars, markets, roads, public toilets, parks or any other place women always have to be on their guards. School and college students are most vulnerable to harassment and illicit behaviour, particularly rampant in public transport, like buses. The play is an attempt to raise awareness and sensitize people on atrocities
against women.
Actors in Video-Shilpi Marwaha(street play team In-charge),Gaurav Mishra, Himanshu Maggo, Rahul Khanna,Kakoli Gaur,Shiv Chauhan,Saveree Gaur,Manu Chaudhary,Vartika Tiwari,Sachin Sexena, Manoj Yadav,Anamika Singh,Smita Lal,Rohit Rohit Vaid,Vivek Vivek Sharma,Ashish Sejwal,,Tarun Kumar,Rinky Negi,nisha,Kunal Sharma,Neetu Singh, Priyansu,Bijay, Daksh,davinder Singh,Devesh, Dipesh,Geet Gera,Kajol Badana,Naman,Princy Tyagi,Pradip Basoya,prasant,Praveen Kumar,Rahul Malhotra ,rajeev,Sartak, Subham,Tushar,Vaibhav, Vikash, Vimal,Shah,vinay,Ratan,Manoj, Alok,Sana, Priyanshu,Saurabh.
Actors in Video-Shilpi Marwaha(street play team In-charge),Gaurav Mishra, Himanshu Maggo, Rahul Khanna,Kakoli Gaur,Shiv Chauhan,Saveree Gaur,Manu Chaudhary,Vartika Tiwari,Sachin Sexena, Manoj Yadav,Anamika Singh,Smita Lal,Rohit Rohit Vaid,Vivek Vivek Sharma,Ashish Sejwal,,Tarun Kumar,Rinky Negi,nisha,Kunal Sharma,Neetu Singh, Priyansu,Bijay, Daksh,davinder Singh,Devesh, Dipesh,Geet Gera,Kajol Badana,Naman,Princy Tyagi,Pradip Basoya,prasant,Praveen Kumar,Rahul Malhotra ,rajeev,Sartak, Subham,Tushar,Vaibhav, Vikash, Vimal,Shah,vinay,Ratan,Manoj, Alok,Sana, Priyanshu,Saurabh.
Saturday, 8 September 2012
संवाद
हमारे अनुभव से ही बनता है नाटक
अरविंद गौड़ से आशीष कुमार ‘अंशु’ की बातचीत
हिन्दी थिएटर में रूचि रखने वालों के लिए अरविन्द गौड़ का नाम जाना पहचाना है. तुगलक (गिरिश कर्नाड), कोर्ट मार्शल (स्वदेश दीपक), हानूश (भीष्म साहनी) और धर्मवीर भारती की अंधा युग जैसे दर्जनों नाटकों के सैकड़ो शो उन्होंने किए हैं. ‘कोर्ट मार्शल’ का ही अब तक लगभग पांच सौ बार प्रदर्शन हो चुका है. पुलिस की कस्टडी में होने वाली मौत हो या पारिवारिक हिंसा, लड़कियों के साथ छेड़छाड़, यौन हिंसा हो या फिर घर के काम के लिए आदिवासी इलाकों से लाई जाने वाली महिलाओं का उत्पीड़न, ये सारे मुद्दे बार-बार अरविन्द गौड़ के नाटकों में प्रश्न बनकर सामने आते हैं. अरविन्द गौड़ के लिए थिएटर, मन विलास का साधन नहीं बल्कि परिवर्तन का टूल है. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश.
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• आपके नाटकों से और थिएटर एक्टिविज्म से आम तौर पर इसमें रूचि रखने वाले लोग परिचित हैं लेकिन आपके बचपन से कम लोगों का परिचय रहा होगा. बातचीत वहीं से शुरू करते हैं?
मेरा बैकग्राउन्ड थिएटर का नहीं था. इलेक्ट्रानिक कम्यूनिकेशन में इंजीनियरिंग कर रहा था. छोटी-मोटी चीजें लिख रहा था. कविताएं, संपादक के नाम पत्र लिख रहा था, यह मेरे शुरूआती दौड़ का लेखन था. मेरे आस पास के अनुभव ने मुझे लिखने पर मजबूर किया. मैं एक शिक्षक का बेटा था. मुझे सरकारी स्कूल और निजी स्कूल का अंतर साफ नजर आ रहा था. उन दिनों भी जब हम स्कूल में थे, निजी स्कूल में दाखिले के लिए डोनेशन देना होता था.
आप सोचिए, कोई बच्चा छह साल का हो और उसे पता चले कि उसका फलां स्कूल में दाखिला सिर्फ इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उसके पिता के पास देने के लिए डोनेशन नहीं था. स्कूल को पंखा या अलमारी नहीं दे सकते. घर वाले यह सब नहीं दे सकते, इसलिए सरकारी स्कूल में दाखिला लेना होगा. जब यह बात जाने अनजाने में एक स्कूल जाने वाला बच्चा समझने लगता है, तो पहले दिन से ही उसके अंदर एक आक्रोश पनपता है. पास के ही पब्लिक स्कूल में दाखिला नहीं हुआ और फिर सरकारी स्कूल में दाखिल हुए.
यह आक्रोश हमारे सीनियरों में भी था. यह द्वन्द्व अक्सर चलता था. वे अभिजात्य हैं, अच्छे कपड़े, अच्छे जूते और अच्छी गाड़ी... हम सफेद शर्ट और खाकी निक्कर वाले थे. जूते मिल गए तो पहने नहीं तो आम तौर पर बिना जूते के ही स्कूल गए. इसका नतीजा हमारी लड़ाइयों से निकलता था. हम आपस में भीड़ते थे. बचपन में इन लड़ाइयों का अर्थ समझ नहीं आया. बच्चों की दुनिया ही अलग होती है. पब्लिक स्कूल वाले स्टील की अटैची लेकर आते थे और हम सरकारी स्कूल वाले पुराने कपड़े का बैग इस्तेमाल करते थे.
• सरकारी स्कूल में पढ़ाई और आवारगी दोनों में अव्वल रहने का सिलसिला कब तक चला?
उन दिनों रोहतास नगर, गली न. दो का हमारा स्कूल बदमाशी में चर्चित था. बाद में अपना स्कूल बदला. उसी दौरान लगा कि कुछ है अंदर. सबसे अलग. उस दिन मैं किताब पढ़ रहा था क्लास में और टीचर ने छूटते ही कहा- तुम नहीं पढ़ सकते. तुम स्पष्ट नहीं पढ़ते. मैं पढ़ने में अच्छा था. नंबर अच्छे आते थे. पढ़ने में होशियार था फिर किताब क्यों ना पढ़ूं? मेरी टीचर से बहस हुई. उन्होंने थप्पड़ मारा और क्लास से बाहर कर दिया. मैंने क्लास रूम का दरवाजा पीटा तो उन्होंने फिर पिटाई की. यह मेरा पहला विद्रोह था. गलत कभी बर्दाश्त नहीं किया मैंने. मेरे स्वर ठीक नहीं हैं. मैं ठीक से पढ़ नहीं पाता. इसके लिए मुझे सारे बच्चों से अलग-थलग करना कहां तक ठीक था? यदि स्पीच इम्पीयर्ड है तो स्कूल में उसे सुधारा जाना चाहिए. बच्चा स्कूल में आता ही है, अपनी कमियों को सुधारने के लिए. किसी स्कूल द्वारा अपने सभी बच्चों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारा जाना चाहिए. इस स्कूल में बिताए गए तीन साल महत्वपूर्ण थे. यहीं पहली बार इंकलाब शब्द जाना.
स्कूल में हम जमीन पर बैठते थे. बाहर से कोई जांच के लिए आया तो दरियां बाहर निकाली जाती थीं. सातवीं क्लास में दरी के लिए पहली हड़ताल की. प्रिंसपल ने यह सब देखा तो गुस्से में एक बच्चे को थप्पड़ मार दिया. फिर स्कूल बंद हुआ और अंततः टाट-पट्टी बच्चों को मिली. इस जीत से हम सब बच्चों का हौसला बढ़ा. फिर मैंने अपने उच्चारण और भाषा पर काम किया. गलतियों को सुधार कर अपने पढ़ने की गति बढ़ाई. भगत सिंह को पढ़ना शुरू किया. उसी दौरान दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का सदस्य बना. पढ़ने का सिलसिला बना तो लिखने का भी सिलसिला शुरू हुआ.
• आप इंजीनियरिंग के छात्र थे, फिर वह कैसे छूटा?
मेरी इंजीनियरिंग चल रही थी, लेकिन रूझान लिखने-पढ़ने की तरफ था. छट्ठे सेमेस्टर में आकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई मैंने छोड़ दी. परिवार और रिश्तेदारों की तरफ से विरोध हुआ. बाद में सबने मेरे निर्णय को स्वीकार भी कर लिया. उसी दौरान मैं थोड़ा उलझन में था कि क्या करना चाहिए? मेरे एक दोस्त के पिता ने स्टोरकीपर की नौकरी दिलाई. वहां तीन-चार महीने काम किया. वहां कारखाने के मजदूरों की जिन्दगी को करीब से देखने का मौका मिला. जो चीजें मैं परिवार में रहकर समझ नहीं पाया था, उसे मजदूरों के बीच रहकर समझा. फिर एक दिन नौकरी छोड़ दी और मजदूरों के बीच काम करने लगा. उस दौरान लिखना और थिएटर दोनों साथ साथ चल रहे थे.
• आप दिल्ली में थे, 1984 के दंगे आपकी नजरों के सामने हुए. आपकी रचना प्रक्रिया को उन दंगों ने प्रभावित जरूर किया होगा?
1984 में हुए सिक्ख विरोधी दंगों ने मुझ पर काफी असर डाला. जो कुछ हुआ, उसने मुझे अंदर तक तोड़ा था. तीन दिनों तक हम लोग अपने एक सरदार दोस्त की जान बचाने के लिए जद्दो-जहद करते रहे. वह एक पूरा एपिसोड है. वह मेरा बचपन का दोस्त था. उसके जब बाल काटे गए, उसकी आंखों के आंसू मैं भूला नहीं पाता. उसे बचा लिया गया लेकिन हमने टायर गले में डालकर जलते हुए लोग देखे, रिफ्यूजी कैम्पों को देखा. आज मेरे नाटकों में जातिवाद के खिलाफ, साम्प्रदायिकता के खिलाफ, सामाजिक न्याय के खिलाफ जो आवाज सुनाई देती है, वह सब इसी पृष्ठभूमि से निकल कर आई है.
• थिएटर एक्टिविज्म कैसे शुरू हुआ? किसी योजना के साथ यह सब हुआ या कुछ यूं हुआ कि खुद को भी खबर ना हुई? मैंने थिएटर में छोटे-छोटे समूहों के साथ काम करना शुरू किया. पहली शुरूआत दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से हुई. वहां खुद ही एक्टर और खुद ही डायरेक्टर था. गुरूवार को नाटक होता था. फिर मंडी हाउस, श्रीराम सेन्टर का रूख किया. उस दौरान नए लोगों के लिए मौका लेना बहुत मुश्किल था. नए लोगों को कोई मौका नहीं देता था. एक बड़े संस्थान के डायरेक्टर को जाकर मैंने कहा कि मुझे एक्टर बनना है. उन्होंने लताड़ा, तुम्हारे पास शक्ल नहीं है, आवाज नहीं है, तुम जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकते हो. थिएटर में मुझे रिजेक्ट किया गया. कोई गॉडफादर नहीं था, पैसा नहीं था. फिर मैंने उसी दौरान मजदूरों के बीच थिएटर करना शुरू किया. • थिएटर करते हुए पत्रकारिता के लिए कैसे वक्त निकलता था? यह दोनों चीजें साथ-साथ ही चल रही थीं. पत्रकारिता भी और थिएटर भी. चर्नोबिल (परमाणु संयंत्र) को लेकर मेरा एक लेख था. उन दिनों नभाटा में संपादक राजेन्द्र माथुर थे. उन्हें देकर आया. देने के दो दिनों के बाद ही वह संपादकीय पृष्ठ पर प्रमुखता से छपा. यह मेरा पहला प्रकाशित लेख था. इससे उत्साह बढ़ा और लिखने का सिलसिला चल पड़ा. इसी बीच माथुरजी ने एक दिन कहा-आप नाटक से जुड़े हैं. एक नाटक है, देख लो और कुछ लिख दो. मैंने पहले नाटक पर लिखा नहीं था. तो संकोच था. पहला रिव्यू मैंने हबीब तनवीर साहब के नाटक का किया. उस दौरान कला साहित्य को सभी अखबार प्रमुखता से छाप रहे थे. उन दिनों मैं ट्यूशन भी पढ़ा रहा था. घर-घर जाकर, बाद में पढ़ाना छोड़ा. चूंकि मेरा लिखना बढ़ गया था. ‘जनसत्ता’ में उन दिनों छपना बड़ी बात थी, इन अखबारों में लिखकर हम सब नई दुनिया का सपना टूकड़ो में देख रहे थे. उस सपने को एक जमीन मिलनी शुरू हुई थी. मंडी हाउस में उन दिनों हम सभी फ्री लान्सर्स मिलते थे. उन दिनों स्वतंत्र पत्रकारों की अपनी दुनिया थी. संख्या में भी आज से अधिक थे. सोशल एक्टिविज्म की बातें और भागना-दौड़ना, मजदूरों के हक के लिए लड़ना, यही जिन्दगी थी. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से संगीत नाटक अकादमी के पुस्तकालय में आ गया. यहां 84 अंत से 90 तक लगातार आता रहा. सुबह नौ-दस से शाम चार-पांच तक यहीं बैठा रहता. वह एक ठिकाना बन गया, कहीं भी जाने-आने का. चूंकि साहित्य की पढ़ाई शुरू से की नहीं थी, इसलिए सब कुछ पढ़-पढ कर समझा और जाना. लिखने का काम भी ठीक ठाक चल रहा था. उन्हीं दिनों कांशीरामजी का लिया हुआ मेरा एक साक्षात्कार बहुत चर्चित हुआ. एसपी सिंह ने बहुत सारे मौके दिए, मेरी सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समझ 80 के दौर में पैदा हो रही थी. वही समय था, जब फ्री लांसिंग और थिएटर दोनों जमकर एक साथ चल रहा था. किसी की नौकरी नहीं थी, इसलिए अपनी मर्जी से जी रहा था. • क्या एक नाटककार के नाटकों पर उसकी निजी जिन्दगी की छाप भी होती है, या यह दोनों बिल्कुल अलग-अलग दो जिन्दगी है. नाटककार के थिएटर की जिन्दगी अलग और पारिवारिक जिन्दगी अलग? अपने जीवन में जो गुजरा है, उसका असर नाटकों पर होता ही है. जीवन में काम करते हुए, सीखते हुए हम लोग आगे बढ़ते हैं. मेरे परिवार में भी ऐसी घटनाएं हुई. मेरी बहन को दहेज के लिए कितनी यातना झेलनी पड़ीं. मेरा परिवार निम्न मध्यम वर्गीय परिवार है. शादी में पिताजी जितना कर सकते थे किया. शादी दिल्ली में हुई. शादी के बाद बहन ओडिशा चली गई. पिताजी मिलने गए तो वहीं शुरूआत कर दी-यह दिया और वह नहीं दिया. बहन पर दहेज के लिए खूब अत्याचार हुआ. शादी के बाद से ही वह अत्याचार की वजह से बीमार रहने लगी और चौंथे साल में उनकी मृत्यु हो गई. जब तक हम उन तक पहुंचे, उनका दाह संस्कार हो चुका था. हम उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए. मेरे नाटकों में आप जो भी देखते हैं, वह सब मेरी जिन्दगी से ही आता है. पहले दिन स्कूल जाने से लेकर आज तक जो भी देखा, महसूस किया, वह सब मेरे नाटकों में है. पत्रकारिता की तरफ भी इसीलिए आकर्षित हुआ था क्योंकि लगा इस माध्यम से अपने आस पास जो गलत होता हुआ दिख रहा है, उसके खिलाफ आवाज उठा सकते हैं. उस वक्त जनसत्ता अखबार था, जो इस तरह की खबरों को स्पेस दे रहा था. फिर मैंने बहुत सारी खबरें जनसत्ता के लिए लिखीं.
एक तरफ मैं थिएटर पर लिख रहा था, देख रहा था और कर रहा था, दूसरी तरफ राजनीतिक सामाजिक विषयों को भी समझ रहा था. राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, एसपी सिंह की पत्रकारिता को देख रहा था और जनसत्ता पढ़ते हुए बड़ा हो रहा था.
• यह अक्सर कहा जाता है कि जर्नालिज्म और एक्टिविज्म साथ-साथ नहीं चल सकते, दोनों में से एक को चुनना होता है? इस बात से आपकी सहमति कितनी बन पाई? मेरी बात करें तो मैं यहां आया ही इसीलिए था कि जो कुछ मेरे साथ हुआ है, किसी और के साथ ना हो. जाने-अनजाने पत्रकारिता करते हुए आपको भी कई बार एक्टिविस्ट की भूमिका में आना ही पड़ता है. मेरे साथ कई बार हुआ. जैसे मैं मजदूरों पर कोई स्टोरी कर रहा हूं. उसी वक्त कोई पुलिस वाला वर्दी का धौंस दिखाकर गांव वालों को सता रहा है, तो क्या उनसे भिड़ना गुनाह है? पत्रकार हैं तो वहां से चुपके से निकल जाना चाहिए. पत्रकारिता बदलाव का बड़ा हथियार साबित हो सकती है. यदि पत्रकार भिड़ने का हौसला रखें. • थिएटर को लेकर क्या अनुभव रहे? थिएटर के दौरान कई बार भिड़ना पड़ा. कभी नाटकों के दौरान, कभी रिहर्सल के दौरान. तीन साल पहले हमने असम, ओडिशा, बंगाल, झारखंड, बिहार से डोमेस्टिक वर्कर्स के तौर पर आने वाली आदिवासी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और उनके शोषण की कहानी को अपने नाटक का केन्द्रिय विषय बनाया. अखबारों में दलालों, प्लेसमेन्ट एजेन्सियों की कहानी आती नहीं हैं. यह सब हमारे नाटकों में आया. अब सरकार भी डोमेस्टिक वर्कर्स के लिए कानून बनाने के लिए मजबूर हुई है. हमने डोमेस्टिक वर्कर्स के साथ काम करने वाली संस्थाओं के साथ काम किया. पत्रकारिता में भी आपको एक स्टैन्ड लेना होगा, यदि आप स्टैन्ड नहीं लेते हैं तो आप लिपिक से ज्यादा कुछ नहीं हैं. आप नौकरी कर रहे हैं. मैं यहां नौकरी करने नहीं आया था. • अब तो आपका पूरा समय थिएटर को जा रहा है, पत्रकारिता कैसे पीछे छूट गई? पत्रकारिता करते हुए मुझे उसकी सीमाएं दिखने लगी थीं. इसलिए भी मैंने अपना पूरा ध्यान इस दूसरे माध्यम पर लगाया. अखबार में संपादकीय पृष्ठ पर मैंने जिसके खिलाफ लिखा, अखबार में दो दिनों के बाद उसी साइज में उसी अखबार में उसके पक्ष में लेख छप जाता है. मानता हूं कि यह उस व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है. उसका पक्ष छपना चाहिए. लेकिन निराधार और पैसे लेकर छपने वाले पक्ष पर क्या राय दी जाए? उसके बाद उस व्यक्ति के लिखे की प्रतिक्रिया में लिखो तो जगह नहीं मिलती. मिलती भी है तो पता चला, किसी कोने में नगर संस्करण में छाप दिया गया है. वर्जन लेना गलत नहीं है. क्या ले रहे हैं और किस मामले में ले रहे हैं, यह महत्वपूर्ण है. 90 से ही लिखना कम हो गया. मुझे लगा कि मैं थिएटर में अच्छा कर सकता हूं. थिएटर की तरफ पूरे समय के लिए आने की कोशिश की. यह दौड़ चल ही रही थी कि एक दिन पीटीआई में काम करने का मौका मिल गया. वहां रिसर्चर के तौर पर जुड़ा. बाद में कार्यक्रम प्रोड्यूस भी किया. उस दौरान वहां एक साहित्यिक कार्यक्रम होता था ताना बाना. इस टीम में उदय प्रकाश थे, पॉल जकारिया थे, शशि कुमार, सुहेल हाशमी बाद में आए. पूरा जमावड़ा था, आठ-दस लोगों का. जिनमें सबसे छोटा मैं ही था. उसी वक्त लगा कि थोड़ा इस माध्यम को समझ कर फिल्म की तरफ जाना चाहिए. उस दौरान प्रकाश झा, श्याम बेनेगल जैसे अच्छे फिल्मकारों को हम देख रहे थे. • फिर थिएटर की तरफ रूख कैसे हुआ? दो साल वहां रहकर मैं बाहर आ गया. फिर सोचा अब क्या करना है? इस बार तय किया-नाटक करूंगा. अपने मन मुताबिक नाटक करूंगा. यह करने के लिए ग्रूप बनाने की सोची. पीयूडीआर (पीपूल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट) के साथ जुड़ा था, फिर उनके एक्टिविस्ट के साथ मिलकर नाटक बनाया. वह नाटक कस्टोडियल डेथ पर था. बाद में करते-करते ही महसूस हुआ कि थिएटर को गंभीरता से करना चाहिए. इसके लिए एक अच्छी टीम की जरूरत थी. मंडी हाउस में वह टीम बनी. हमने इस टीम के साथ पहला नाटक भीष्म साहनी का ‘हानूश’ किया. धीरे-धीरे थिएटर करते-करते कुछ सबक सीखे. उनमें एक यह भी था कि थिएटर मूवमेन्ट को आगे तक ले जाना है तो नए कलाकारों के साथ थिएटर करना है. जैमिनी कुमार और राशिद जैसे बहुत से दोस्तों का शुरूआती दौड़ में बड़ा साथ मिला. • क्या आपने अपने नाटकों के साथ कुछ प्रयोग भी किए? अपने नाटकों के साथ हम यह प्रयोग अक्सर करते हैं कि पुराने नाटक में वर्तमान समय में चल रहे अभियान, आन्दोलन से जुड़े प्रश्नों को जोड़ देते हैं. इससे हमारा दर्शक अपने समय की चुनौतियों को समझ पाता है और वह आज का दर्शक बनता है. इसी तरह जब किसी जन आन्दोलन को हमारी जरूरत होती है तो हम साथ देने के लिए जाते हैं. हाल में ही हम सात दिन बिहार में बिताकर आए. इन दिनों छेड़खानी और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर हमलोग काम कर रहे हैं. |
Child deaths highlighted in theatre
Baishali Adak, Aug 30, 2012, DHNS :
Staged

I Will Not Cry- a powerful solo play highlighting the issue of child survival in India will be staged at IHC on September 1.
Scripted and directed by Asmita Theatre Group’s Arvind Gaur, It will feature acclaimed theatreperson Lushin Dubey. The play, in support for ‘Save the Children,’ is an exceptional blend of theatre and multimedia. Through satire and music excerpts, the play brings alive the sad truth of millions of child deaths in our country. It hopes to evoke our collective responsibility, as a nation and a society to act together.
This play is in support of NGO Save the Children’s global campaign ‘New Born & Child Survival’. Through this play, Save the Children aims to reach out to the government and the public at large to advocate for change – change for India’s children, change for India’s future.
The play premiered in Delhi on 23 November 2011, followed by a dynamic discussion with eminent panelists – Shabana Azmi, Syeda Hameed, Member and Harpal Singh. The play has travelled to Jaipur, Mumbai and Kolkata and enthralled the audience with Lushin’s powerful performance.
Lushin herself is one of the biggest names in the children’s theatre movement in India. After completing her Masters in Childhood and Special Education from the US, Dubey was deeply involved in teaching mentally challenged children in the US and then in India at the American Embassy School. Lushin runs two theatre enterprises – Kidsworld and Theatreworld.
Director Arvind Gaur, known for his innovative, socially and politically relevant theatre, comments, “The rate of child deaths in India are most alarming and shocking. India has unofficially become the world’s child death Capital.
Over 5,000 children die in the country every day due to totally preventable causes like diarrhoea, pneumonia and birth related complications. Over four lakh newborns die within the first 24 hours of birth every year, which is the highest anywhere in the world, but sadly and shockingly, this is not a priority for us.”
“The priorities of our economic policies are changing and children figure nowhere there. Schemes, plans and funds are there but they don't reach their destination. Ultimately, it all boils down to corruption.”
“The objective of this play is not just to stir and sensitise the audience to the shocking and shameful number of child deaths in our country, but to also alert them to introspect on their social responsibility towards the issues,” said Arvind.
Scripted and directed by Asmita Theatre Group’s Arvind Gaur, It will feature acclaimed theatreperson Lushin Dubey. The play, in support for ‘Save the Children,’ is an exceptional blend of theatre and multimedia. Through satire and music excerpts, the play brings alive the sad truth of millions of child deaths in our country. It hopes to evoke our collective responsibility, as a nation and a society to act together.
This play is in support of NGO Save the Children’s global campaign ‘New Born & Child Survival’. Through this play, Save the Children aims to reach out to the government and the public at large to advocate for change – change for India’s children, change for India’s future.
The play premiered in Delhi on 23 November 2011, followed by a dynamic discussion with eminent panelists – Shabana Azmi, Syeda Hameed, Member and Harpal Singh. The play has travelled to Jaipur, Mumbai and Kolkata and enthralled the audience with Lushin’s powerful performance.
Lushin herself is one of the biggest names in the children’s theatre movement in India. After completing her Masters in Childhood and Special Education from the US, Dubey was deeply involved in teaching mentally challenged children in the US and then in India at the American Embassy School. Lushin runs two theatre enterprises – Kidsworld and Theatreworld.
Director Arvind Gaur, known for his innovative, socially and politically relevant theatre, comments, “The rate of child deaths in India are most alarming and shocking. India has unofficially become the world’s child death Capital.
Over 5,000 children die in the country every day due to totally preventable causes like diarrhoea, pneumonia and birth related complications. Over four lakh newborns die within the first 24 hours of birth every year, which is the highest anywhere in the world, but sadly and shockingly, this is not a priority for us.”
“The priorities of our economic policies are changing and children figure nowhere there. Schemes, plans and funds are there but they don't reach their destination. Ultimately, it all boils down to corruption.”
“The objective of this play is not just to stir and sensitise the audience to the shocking and shameful number of child deaths in our country, but to also alert them to introspect on their social responsibility towards the issues,” said Arvind.
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